Friday, July 20, 2018

*उपलब्धि*

1 मेरी कहानी- प्रतिलिपी कथा स *उपलब्धि* स्‍तब्‍ध ! निःशब्‍द ! किंकर्तव्‍यविमूढ़ ! एकदम जड़ से हो गए हैं, रघुनन्‍दनजी एवं उनकी पत्‍नी। आनंदित हों या दुखित नहीं समझ पाए हैं। अभी तक अपने आपको वे लोग सर्वाधिक परोपकारी, परमार्थ में लिप्‍त आदर्श मानते रहे हैं। पर--उनकी ये प्रबल धारणा कहाँ विलुप्‍त हो गई है। पल भर में दर्पण स्‍वयं उनको अपना प्रतिबिम्‍ब दिखला गया है। आत्‍मज्ञान सच्‍चा आनन्‍द प्रदान करता है। इन क्षणों में वे दोनों अनायास इतने-अकेले दुर्बल सा अनुभव क्‍यों कर रहे हैं। मन की अन्तरचेतना झकझोर दे रही है। आध्‍यात्‍मिक विचारों की भावना प्रगट होनी चाहिए। मानव जीवन की सफलता भी इन्‍हीं पर आधारित होती है। अपने आदर्शों का पालन स्‍वतः करते आए हैं वे। पर उनके नियम धर्म पालन में कहाँ क्‍या छूट गया है। इतनी ऊंचाइयों पर पहुंचने का श्रेय रघुनन्‍दन जी एवं उनकी पत्‍नी यशोलक्ष्‍मी इन्‍हीं विचारों को दिया करते। अभी कुछ समय उपरान्‍त ही उन्‍हें प्रदेश के राज्‍यपाल के द्वारा ‘सर्वोच्‍च गौरवशाली पुरस्कार मिलना है। जीवन के समस्‍त श्रम का सुफल' जो वे दोनों अब तक निभाते आए हैं। पर.......अन्‍तर्मन की इस आवाज को वे दबा नहीं पाते हैं। क्‍या वे वास्‍तव में इस पारितोषिक के हकदार हैं। क्‍यों ? प्रश्‍न सा गूंजने लगता मन में। इसी प्रश्‍न ने सहसा यहाँ प्रगट होकर उनकी इतनी बड़ी उपलब्‍धि को क्षण भर में बौना बना दिया है। समय से जागृत कर चेतन कर दिया है। सही रूप से मार्ग निर्देशित करके। सिर झुका लिया है उन्‍होंने। उसके उच्‍च विचारों का अक्षरशः न केवल पालन करने हेतु बल्‍कि अपने कार्यों द्वारा भी स्‍वयं को बदलने का प्रण कर लिया है। और.......सपत्‍नीक रघुनन्‍दनजी आगे, नहीं ही बढ़ पाए हैं। पुनः उसे अपने साथ लेने हेतु आतुर होकर वापस लौट पड़े हैं। मन की दुविधा लुप्‍त हो चली है। बिखरती भावनाओं को एक सही दिशा मिल गई है। अपनी उस कमी को ही दूर करने की शुरूआत हो चुकी है। ‘विचार थमे नहीं हैं, सोचते हैं।' अभी तक के जीवन में किए गए सार्थक प्रयासों व सामाजिक कार्यो को एक नया आयाम, नए रूप में प्राप्‍त होने जा रहा है रघुनन्‍दन जी को। अभिनन्‍दन हेतु जा रहे हैं। प्रसन्‍नता किसे नहीं होती है। फिर इस दुर्लभ पारितोषिक की तो कब से राह देखते आ रहे हैं। अब राज्‍य सरकार का निमंत्रण पाकर अधीर ही नहीं उत्‍सुक भी हैं। शीघ्र अपना पुरस्‍कार पाने को। अपार वैभव, धन-समृद्धि, माँ लक्ष्‍मी की कृपा दृष्‍टि, सर्व सुख संपदा का साम्राज्‍य है उनके पास। जिस काम में वे हाथ डालते हैं, वह सहज प्राप्‍य होती है। पूरी निष्‍ठापूर्वक, सावित्‍क-धर्माचरण, कर्तव्‍य परायण, मर्यादित रहकर-परसेवा में पति-पत्‍नी दोनों को पूर्ण विश्‍वास है। दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती जाती है। तब भी विचारों में सदा मगन रहा करते हैं। कैसे और आगे बढ़ा जाए ?एक छोटे से व्‍यवसाय से कदम बढाकर, आज इन ऊंचाइयों पर वे किस तरह पहुंच गए हैं वो ही जानते हैं। अन्‍तस्‍थल के किसी कोने से एक निर्बल सी आवाज उनके कानों में आ टकराती है। इसके लिए भी कितने यत्‍नपूर्वक कूटनीति अपनानी पड़ी है। वरदहस्‍त से वे, दान-दक्षिणा परहित में विश्‍वास करने लगे। जिससे उन्‍हें प्रसिद्धि प्राप्‍त होने लगी। अनवरत आगे बढ़ने के लिए, उन्‍होंने यही मार्ग अपना लिया है। मन की इस उक्‍ति को वे प्रायः झटक देते। बांटेंगे तभी तो पाएंगे ‘प्रसिद्धि एवं समृद्धि।' नाम से प्रसिद्ध होंगे तभी सम्‍मानित होंगे। जीवन का लक्ष्‍य उन्‍होंने यही बना लिया है। पति-पत्‍नी दोनों ने अपनी सारी मानसिक, शारीरिक शक्‍ति भी लगा दी है। फलस्‍वरूप ‘कुबेरपति' बन गए हैं। संसार की समस्‍त खुशियाँ व अपना प्‍यारा परिवार है उनके पास। सच्‍चे अर्थो में सहभागिनी, सहधर्मिणी ईश्‍वर में सच्‍चे आस्‍था रखने वाली पत्‍नी। यशोलक्ष्‍मी यथा नाम तथा गुण। हर कदम साथ रखती हैं। नाजों से पला, पलक पांवड़ों पर बिठाला, लाड़ला बेटा ‘दिव्‍यांशु'। ‘सरस्‍वती देवी' की दया से अत्‍यन्‍त मेधावी, हर चीज में सदैव आगे अग्रणी रहने को ही उत्‍सुक रहता। यशोलक्ष्‍मी व रघुनन्‍दन जी को एक यही पीड़ा रहती। बेटे से उनके विचारों का तारतम्‍य न रहता, भावनाएं कभी नहीं मिलतीं। पति-पत्‍नी दोनों ही उसे अभी अपने अनुसार नहीं ढ़ाल पाए। पश्‍चिमी सभ्‍यता के आचार विचार, आधुनिकता में मग्‍न, सबसे विलग रहता। अपने दोस्‍तों की फौज से घिरा, गीत-संगीत में पूरा मस्‍त। अपने माता-पिता की ये मान-सम्‍मान यशोगान परोपकार की भावनाओं को नकारता, कृत्रिमता मानता। उसे सब कुछ बनावटी लगता। यहीं बाप-बेटे में दरार बढ़ती जाती। ये ही ‘जेनरेशन गेप' है। वे सोचते, उन लोगों को बड़ी मानसिक तकलीफ हुआ करती। दिल से चाहते, युवा होता बेटा उनकी सभी सभाओं, क्रियाकलापों व सामाजिक कार्यों में हिस्‍सा लेने लगे तो न केवल मान सम्‍मान बढ़ने लगेगा वरन नाम भी बढ़ेगा। इसी चाहत से दिव्‍यांशु चिढ़ा करता। कह भी देता, पापा-माँ ये सारा दिखावा क्‍यों करते हैं। आप लोग स्‍वार्थी हैं, ढकोसला है यह सब। अपने आपको प्रदर्शित करने का एक बहाना है। बेटे को वे कभी नहीं समझ पाते। समृद्धि-संपदा प्राप्‍त करने का ये भी एक शालीन रास्‍ता है। मुक्‍त हस्‍त से बांटोगे सारी नियामत पाओगे। तभी तो हम.......। बेटे को इस सबसे कोई मतलब नहीं रहता। माँ-पापा चिन्‍तित दुखित रहते उसकी बातों से। परस्‍पर वार्तालाप भी सीमित रहता। वैचारिक असामंजस्‍य भी बना रहता। उत्‍तर-दक्षिण ध्रूव की तरह। उस दिन भी बड़े मान-मनुहार के बाद वे लोग अपने बेटे दिव्‍यांशु को साथ चलने हेतु मना पाए। पुरस्‍कार सम्‍मान प्राप्‍त करने के आयोजन में माँ-पिता को बेटे की उपस्‍थिति अनिवार्य सी ही महसूस हुई। पूरी तैयारी करते देर होती जाती। समय कम बचा है। ड्राइवर से पहले ही हिदायत कर दी, रघुनन्‍दन जी ने थोड़ी तीव्रता से ही चले चलना। समारोह स्‍थल पर कुछ पहले पहुंचना ही उचित है। मंदिर में दर्शन करना है यशोलक्ष्‍मी ने कहा। पति-पत्‍नी परस्‍पर वार्तालाप में मग्‍न, प्रसन्‍नचित होते जाते। बेटा गाड़ी में ड्राइवर के साथ अगली सीट में बैठा वाक्‌मैन लगाए मस्‍त है। सब कुछ से पूर्णतः उदासीन, तटस्‍थ भाव से, अपने आप में सिमटा निर्लिप्‍त सा, विचार मग्‍न है। बचपन से इतना वैभव पूर्ण सुख, मान सम्‍मान लाड़ प्‍यार से ओत प्रोत है। अतः कुछ जिददी सा ही बन गया है। हाँ अपने व्‍यस्‍त कार्यक्रमों के कारण ही वे उसे पूरा समय नहीं दे पाए हैं। कभी ‘सामाजिक-व्‍यवसायिक' व्‍यस्‍तता बनी ही रही है। अपने ऐश्‍वर्य का यही गुरूमंत्र उसे नहीं दे पाते यहीं उनका वश नहीं चलता। अपने ड्राइवर से ‘‘थोड़ा और तेज चलो'' कहकर आराम करने हेतु तनिक पलक झपकी ही कि तेजी से बैरक लगने की आवाज आई। झटका लगने से नींद खुल गई। झांककर बाहर देखा, एक नन्‍हा सा किशोर गिरा पड़ा है। धूल धूसरित गंदा सा, फटे पुराने कपड़े पहने रूआंसा सा उठकर खड़ा हो गया। लंगड़ाकर चल रहा है रघुनन्‍दन ने कहा, देखकर चला करो, रोड पर चलने का तरीका सीखो। जाने कहाँ से चले आते हैं, हमारी ही गाड़ी से टकराने को। वैसे ही पहले से देर हो रही है।‘‘ तुरन्‍त जेब से एक सौ' का नोट निकाला, उसे देते हुए कहा ''लो इसे रख लो, दवाई करवा लेना।'' ‘‘ओफ, सुबह सबेरे ही जायका खराब कर दिया है'' यशोलक्ष्‍मी ने प्रगट किया। अपने संगीत में मगन, दिव्‍यांशु का ध्‍यान अभी तक यहाँ नहीं आ पाया था। वह अपने आप में केन्‍द्रित था। तभी उसकी दृष्‍टि बाहर पड़ी। ‘‘ड्राइवर रोको।'' अचानक जागृत होकर वह गाड़ी के बाहर लगभग कूद ही पड़ा। अपना वाक्‌मैन कानों से दूर फेंककर उसने तुरन्‍त ही उस लगभग रोते हुए बच्‍चे को, गंदे से लड़के को पूरे अपनत्‍व से एकदम अपने से लिपटा लिया। प्‍यार से थपथपाकर पूछा, ‘‘तुम्‍हारा नाम क्‍या है दोस्‍त-कहाँ जा रहे हो।'' फिर उसके पूरे बदन का निरीक्षण किया। उसे घबराया व लंगड़ा सा चलते देखकर, उसके पैर का कपड़ा उठाकर देखा। खून की एक मोटी सी धार बहती नजर आई। अपने गले का कीमती स्‍कार्फ निकालकर, लड़के के पैर में कसकर बांध दिया। उसके बछड़े को उठवाया, देख ही रहा था कि ‘‘अरे, इतने मैले-कुचैले कपड़े वाले घृणित से लड़के को जाने कितने दिन से स्‍नान तक नहीं किया है ,क्‍यों पकड़ लिया है तुमने। अछूत सा , पहले से ही रोगी लग रहा है। अभी तुम, बेटे नहा धोकर तैयार हुए हो, क्‍या जरूरत है छूने की। पैसे तो दे दिए हैं हमने, अपना इलाज करवा लगा।'' माँ ने कहा। दिव्‍यांशु ने पलटकर देखा, ‘‘अभी मंदिर भी चलना है, इन बच्‍चों को तो कुछ समझ भी नहीं है, ऐसे लोगों को तो तुरन्‍त कुछ ले देकर रफा दफा करना चाहिये चलो भी बेटे '',पुनः माँ बोली। तभी दिव्‍यांशु आगे बढ़ा, उस निर्बल से हमउम्र बच्‍चे को सहारा देकर कहा, ‘‘पापा इसे काफी चोट लगी है, इसकी मरहम पट्‌टी जरूरी है। और वो.......।'' ‘‘बेटे उसका पूरा मुआवजा हमने दे दिया है न कहीं भी अपना इलाज करवा लेगा। तुम कहते हो तो और भी कुछ देंगे ये लो।'' एक नोट और देते हुए कहा, अब चलो भी, देर हो रही है '',पापा ने कहा। ‘‘और तुम उसे छुओ नहीं। कितना गंदा है ,तुम्‍हारे हाथ ,कपड़े गंदे हो जाएंगे। अब डिटॉल , साबुन से हाथ धोना। समय की कमी है गाड़ी में बैठो, छोड़ो उसे चलो।'' माँ का स्‍वर आया। ............दिव्‍यांशु ने अब सिर उठाया, गंभीर मन्‍द स्‍वर में कहा, ‘‘पापा-माँ वो पुरस्‍कार आप लोगों को मिलना है। देर आप लोगों को हो रही है, आप निकलिये.....। मैं...मैं तो अभी नहीं चल पाऊंगा। हमारे द्वारा इसे कितनी चोट पहुंची है ,मैं इसे कुछ डाक्‍टरी सहायता देकर आता हूं। यहाँ इसे गांव से तो मीलों दूर जाना होगा, ये जा न सकेगा पैसा होगा तो भी, दवाई नहीं मिल पाएगी तब क्‍या इसका ये जख्‍म और नहीं बिगड़ जायेगा।'' ‘‘अरे चलो भी बेटे, क्‍या बेकार सिरदर्द पाल रहे हो।'' माँ के कहते ही, बेटे ने प्रत्‍युत्‍तर में कहा, ‘‘पर माँ तुम तो उस दिन मेरी उस छोटी सी चोट लगने पर ही कितनी व्‍याकुल हो उठीं थीं। पापा ने तो बिना देखे ही दो-तीन डाक्‍टर बुलवा लिये थे। खैर.....मैं तो इसे छोड़कर नहीं चल सकूंगा इसे कुछ आराम दिलवाकर आता हूं तुरन्‍त। पापा-माँ आप लोग निकलिए, ये तो हाई वे है। कोई भी गाड़ी मुझे मिल जाएगी। मेरे लेट होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। आप लोग प्‍लीज समय से पहुंचें।'' गाड़ी से उतरकर दूर हट गया वह ‘‘ड्राइवर जाओ तुम, मेरी चिन्‍ता नहीं करो।'' रघुनन्‍दन जी-यशोलक्ष्‍मी देखते रह गए अपने प्‍यारे लाड़ले बेटे का ये रूप् ‘‘अपूर्व विचार'', जो उनके लिए तो बिल्‍कुल अनजान थे, नये थे। भाव विव्‍हल हो आल्‍हादित हो उठे वे। उसका तो उनकी हर गतिविधियों समाजसेवा पार्टी डिनर आद से अत्‍यन्‍त दूर का भी कोई वास्‍ता नहीं रहा है। माँ पिता की हर बात को दिखावा मानता है। ये आज उसे क्‍या हो गया है ? उसके अन्‍दर ये कैसा मानव छिपा है। कैसे निराले विचार हैं उसके। प्रिय बेटे के उच्‍चवर्गीय अमीरजादे दोस्‍त, कान फोड़ने वाला संगीत, नित नए फैशनेबल अंदाज को वे सदैव उन सबकी उच्‍छृखंलता या आधुनिकता मानते रहे हैं। उसी की ये अनुभूति, मार्मिक-भावना, कौन से पवित्र सुसंस्‍कारों की प्रतीक है। जिसने उन दोनों को अंतर्मन तक झकझोर कर दिया है। देर होती जा रही है उन्‍हें, जाना जरूरी है। बेटा बड़ी मुश्‍किल से साथ आया है। उसकी बात न मानकर जबर्दस्‍ती नहीं की जा सकती है। उसने जो कार्य सोचा है, पूरा करके ही आएगा, जानते हैं उसकी आदत। यशोलक्ष्‍मी अवाक्‌ ! हतप्रभ ! दोनों माँ-पिता ने एक दूसरे को निहारा। कुछ भी कहने सुनने सुनने को नहीं बचा है। वे गलत हैं या बेटा सही है। क्‍या कहें, किससे कहें। हाँ धर्मसंकट आन पड़ा है समक्ष। दोनों तरफ आवश्‍यक महत्‍वपूर्ण कार्य है। बेटे ने कहा, ‘‘ड्राइवर भैया जाओ, स्‍टार्ट करो।'' असमंजस में पीछे पलटकर देखा। साहब लोग मौन हैं स्‍वीकृति है, सोचकर गाड़ी बढ़ा दी, उसने। तनिक आगे बढ़ने पर, रघुनन्‍दनजी चैतन्‍य हुए। भावों ने अंगड़ाई ली। उन लोगों को पूरे प्रदेश के सर्व अग्रणी-समाजसेवी के रूप में उनके द्वारा दिए दान, किए गए कल्‍याणार्थ कार्यो पर आधारित ये सर्वोत्‍कृष्‍ट पारितोषिक स्‍वयं प्रदेश के राज्‍यपाल देने जा रहे हैं। क्‍या वे इस योग्‍य हैं ? उनका मन डगमगा गया है। अनजानी व्‍यथा से मनभर उठा है। क्‍या वे मात्र दिखावा करते आए हैं अब तक ?अपनी छल प्रपंचमयी कूटनीति अपनाते आए हैं। क्‍या समृद्धशाली बनने का अचूक हथियार है ये। कुछ भी नहीं सोच पा रहे हैं मन खुंदक सा हो गया है। उनके अपने बेटे ने इस एक क्षणांश में ‘मानवता' का सही पाठ पढ़ा कर सद्‌मार्ग दिखला दिया है। सारी ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, जाति-पांति के भेद को परे हटकर सत्‍यनिष्‍ठा से, निःस्‍वार्थ भाव से मानव पीड़ा बांट रहा है। नन्‍हें अनजान हम उम्र बच्‍चे को भी अपने जैसा मानकर कृत्रिमता नहीं, स्‍वांग नहीं, कर्तव्‍यपूर्ति नहीं उन्‍हें सीख दे रहा है। उन्‍हें लग रहा है आधुनिकता का आवरण तो वे ओढ़े हुए हैं। बेटे के निश्‍छल भेदभाव रहित वास्‍तविक स्‍वरूप ने उन दोनों को गहरी टीस दी है जख्‍म सा महसूस हो रहा है। उनकी अब तक की कार्यप्रणाली उनको स्‍वयं छोटा बना गई है। बेटा बड़ा बन गया है यथार्थ प्रगट हो गया है। मधुमक्‍खियां अंधेरे में रहकर कार्य करतीं हैं। विचार मौन में कार्य करते हैं। ‘नेक कार्य' भी गुप्‍त रहकर कारगर होते हैं । यही ज्ञान का सच्‍चा स्‍वरूप है। तभी मधु प्राप्‍त होता है। और.......वे लौट पड़े हैं। उस नन्‍हें किशोर का पूरा स्‍वास्‍थ्‍य परीक्षण कराकर ही आगे जाएंगे सोचकर। पुरस्‍कृत तो होना है। विलंब से सही। पर वास्‍तविक पुरस्‍कार तो उन्‍हें प्राप्‍त हो गया है। अपने सपूत की पवित्र भावना जानकर। कितनी बड़ी उपलब्‍धि प्राप्‍त हो गई है आज, मन की आँखें भी खुल गई हैं। कल्‍याणकारी कार्यो की पूर्ण सफलता तभी पूर्ण होती है, जब उनको अपने जीवन में भी अमल किया जाए। किसी भी दिखावे को नहीं। तभी उनका गहरा जख्‍म भरेगा। समझ गए हैं। सूर्य जब गहरे बादलों से घिर जाता है, तो उसके प्रकाश का महत्‍व कम नहीं हो जाता। पवन उन्‍हें उड़ाकर शीतल जल रूप में बरसा देती है। इन्‍हीं स्‍वार्थ रूपी मेघों ने अन्‍तर्स्‍थल पर सुसंस्‍कृत भावनाओं की बौछार कर दी है तन-मन के स्‍नेह को फैलाकर। अब अनेक उज्‍जवल रश्‍मियां पूर्ण गरिमा के साथ ‘‘नव आलोक'' को पूर्ण गगन में विस्‍तारित करके सुनहरा प्रकाश फैलाकर उल्‍लासित हो उठीं हैं। ------------------------------------------------------- लेखिका- श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल मेरी प्रस्तुत कहानी प्र स हेतु.

*माटी की खूशबू*

लेखिका - अलका मधुसूदन पटेल 2 मेरी कहानी- प्रतिलिपी में क स हेतु **माटी की खूशबू** सदाशयता या भावनाओं के प्रवाह में बहकर नही वरन नितांत गंभीरता से ही डिप्‍टी कलेक्‍टर प्रशांत ने अपना निर्णय जानना चाहा।‘‘ मैं जानता हूं भानू सब समझता हूं। तुम्‍हारा जो भी फैसला होगा, मुझे मंजूर होगा। तुम्‍हारी इच्‍छा का सम्‍मान करूंगा। हां पर सोचो जीवन के किसी मोड़ पर तो एक साथी की जरूरत पड़ेगी ही न। जो बिल्‍कुल तुम्‍हारा अपना होगा, तुम्‍हारे सारे सुख दुख समेटेगा। अच्‍छाइयों बुराइयों के साथ अपनाकर तुम्‍हारे कदम पर कदम चल सकेगा। मैं तुम्‍हारे साथ हूं और रहूंगा। आशा है परिणाम मेरे पक्ष में होगा।''........ ‘‘इंतजार करूंगा मैं तुम्‍हारा।'' बार बार उसके स्‍मृति पटल पर प्रशांत के वे ही शब्‍द मिटते उभरते। ‘भावना' अपनी अव्‍यक्‍त घनी उदासी में डूबी रहकर यही सोचती रही हैं उसके अकेलेपन व सूने जीवन के साथी तो प्रशांत से अधिक कोई नहीं हो सकता हैं। वे ही तो हैं जो उसके रूप ही नहीं गुणों की भी कद्र सदैव करते आए हैं। कितनी धीरता से उसका मनोविश्‍लेषण करते रहे हैं वे। पिछले कुछ दिनों से उसके परिस्थितियों के मूक साथी भी तो हैं। अपने छोटे से जीवन में कितने उतार चढ़ाव देखती रही है। भीषण झंझावातों से झुकी नहीं हैं। अनेक ही कठिनाइयां आती रहीं हैं। पग पग पर डगमगाई तो है पर सँभलती रहीं। बाहृय आडंबरों के कितने घने जालों में फंसकर निकल चुकी है। बिखर नहीं पाई है, प्रबल आंधियों से टक्‍कर ली है भागी नहीं ही है। पर........अब जिन्‍दगी के इन भीगे क्‍लांत क्षणों में अनायास उसके मन किसी के कंधे पर सिर रखकर शीतलता पाने का हो रहा है। जीवनपथ पर जबसे प्रशांत आ मिले हैं सबकुछ छोड़कर उम्र जाति धर्म उलझनों से बहर निकलकर केवल उनका ही साथ चाहती है भावना। कितने असमंजस संघर्षात्‍मक स्‍थिति में है वह, प्रदर्शित नहीं कर पाती है वैसे भी कुछ समय से उसने सबसे अलग सा कर लिया है अपने आपको। घर में भी तो कितनी सीमित रह गई है। प्रशांत ने आज मिलने बुलाया है। वह अपना निर्णय प्रकट कर ही देगी। अब नहीं भटकेगी उलझेगी। कब तक वह स्‍वयं को ही प्रज्वलित करती रहेगी सबके लिये। उसकी संवेदनाएं और जागृत हों, इसके पूर्व ही वह निकल पड़ेगी। अनगिनत विचारों की मानसिक उथल पुथल में उसने फैसला ले लिया हैं। पूर्ण चैतन्‍य होकर आगे बढ़ने को उद्यत हो उठी है भावना। स्‍वनिर्णय से पूर्ण संतुष्‍ट निर्भय। भावना को आज कहीं नही जाना है। रोज ही अपनी नौकरी व ट्‌यूशनों में उलझनों में उलझी रहती है। आज विद्यालय की छुट्टी है। घर में किसी काम में मन नहीं लग रहा है। यहां का सब कुछ उसे आडम्‍बर पूर्ण लगने लगा है। संवादहीन सी स्‍थिति बनी रहती है। वैसे भी प्रतिदिन व्‍यस्‍तता में बाहर रहने के बाद यहां की निरर्थक उदासी की बोझिलता से दूर ही रहना चाहती है। जाने क्‍यों उसे लगने लगा है, उसकी अब किसी को कोई जरूरत नही है या समय से उसका विवाह न कर पाने का दुःख उसके परिजनों काट रहा है। वह भी सबसे कटकर एकदम निर्लिप्‍त तटस्‍थ हो उठी है। तैयार होकर निकलने के पूर्व, दर्पण में अपना अपना अश्‍क देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कितनी आकर्षक व दीप्‍तिपूर्ण चेहरा लग रहा है। साथ ही उसकी योग्‍यता से तो उसको मिलने वालों में प्रशंसा और मिलने की उत्‍सुकता उत्‍फुल्‍लता है। बाहर निकली, देखा....पापा सामने खड़े हैं। ध्‍यान से देखती है कितने कमजोर, अशक्‍त लग रहे है। इतने दुबले हो गए हैं क्‍यों ? कितने दिनों बाद उनको देखने का मौका मिला उसे? व्‍यस्‍तता रही या कोई बहाना। अपने आपसे पूछती है। वे भी कहीं जाने को तैयार हैं, हाथ में लाठी का सहारा लिये खड़े हैं। अचानक उसके मन में उसके वे बलिष्‍ठ पिता झांक जाते है, जिनके आगे पीछे वह डोलती फिरती थी। अपने प्रश्‍नों उत्‍तर के चंगुल से उन्‍हे सांस तक लेने का अवसर नही देती। उसके सारे संकटों व्यवधानों का पल में निर्णय कर सदैव उसे चिंतामुक्‍त रखा करते। उसके दृढ़संबल, प्रेरणास्‍त्रोत प्रबल पक्षधर उन्‍हीं के सहारे शायद वह इतने आगे बढ़ सकी है। क्‍या हो गया है उसे , पापा की लाड़ली वह तो बेटी नही बेटा बनकर ही रही है। क्‍यों लगा है उसे......इतने दिनों बाद ?‘‘कहीं जा रहे हैं आप ?'' पूछती है वों। ‘‘हां बेटी'......आज वो लायंस वालों ने ‘‘आई कैम्‍प'' लगाया है। सोचता हूं वहीं अपनी दूसरी आंख का ‘मोतियाबिन्‍द' भी बनता लूं। कुछ बचत भी हो जाएगी, पहली आंख की दवा भी हो जाएगी। देख ! कितना पानी बहता रहता है, पोंछते हुए कहता हैं। डाक्‍टर्स व क्‍लब वालों ने आश्वासन दे दिया है वहां के लोग बडे अच्‍छे हैं।'' ‘‘पर पापा पिछली बार इसी तरह के किसी कैम्‍प में ही तो आपकी आंख का ये पानी......।'' कहते रूक जाती है। शब्‍द कहीं खो से गए हैं। निःशब्‍द ! रहकर मन कैसा तो हो जाता है। ‘‘ओह पैदल जा रहे है। क्‍या !''जानती है वो इधर आजकल वे पैदल ही जाते हैं। वे कुछ भी नहीं कहते, बस उसे देखते ही रहते हैं। उससे देखा नहीं जाता। उनकी वह दृष्‍टि झेल नहीं पाती। ‘कैटेरेक्‍ट' की पीड़ित आंख से लगातार बहते पानी को देखकर वह अंदर तक हिल जाती है। पर्स से कुछ नोट निकालकर पापा की ओर बढ़ती है। पिताजी लेते नहीं है। ‘‘रहने दो बेटा, दूर ही कितना है चला जाउंगा धीरे धीरे।'' पर भावना सामने से ‘‘आटो'' बुलवा देती है। उसे ‘‘नोट'' देकर कहती है। ‘‘लो भाई काटकर बाबूजी को दे देना।'' उन्‍हे जाते दूर तक देखती रहती है। जानती है उतने रूपये वे हफ्‍ते भर तक चला लेंगे। पापा कितने खुश रहा करते थे। अब तो उनके मुंह पर हंसी आती ही नहीं है मानो। जब से रिटायर हुए हैं, कैसी बेबसी झाँकती है, आँखें ही पिघल रही हों जैसे। कितनी तेजी से वृद्ध होते आ रहे हैं। उससे कुछ भी लेने में क्‍यूं हाथ कांप जाते हैं। हर महीने पेंशन के रूपये मां के हाथ में देकर कहते हैं, ‘‘लो सम्‍हालकर खर्च करना ‘‘रिटायर्ड आफिसर'' को कितने रूपये मिलेंगे।'' कितनी शान से....... गर्वीली जिंदगी बिताई है पापा जी ने। ‘‘ईमानदारी के सर्वोत्कृष्ट स्‍वरूप।'' पर भावना को लगता है, कुछ भी तो नहीं हैं पापा के पास। क्‍या आदर्शों को कोई मान नहीं है। कभी सोचती है यदि अन्‍य तरीकों से इधर उधर के कार्य किए होते, तो क्‍या वे सब यों भटकते। उनका बड़ा बेटा कहीं बड़ी नौकरी में होता। उनकी बेटी इस एकमात्र पुत्री की बड़े ही धूमधाम से अच्‍छी जगह शादी हो चुकी होती। उसका छोटा भाई डाक्‍टरी इंजीनियरिंग में आसानी से प्रवेश पा लेता। उनका कहीं बड़ा सा बंगला होता। बैंक बैलेंस होता। ‘‘दुहिता'' से अपने ‘‘प्‍यारे पिता'' की वेदना नहीं झेली जाती। पर क्‍या ? सिर्फ अपनी नजर बचाने से इन समस्‍याओं का समाधान हो सकता है। ‘‘वो क्‍या करे, न करे, अपनी उलझनें यहां किसी से नही बांट सकती।'' तीव्रता से भावना बाहर जाने को चल पड़ी। लगा कमरे से कोई आवाज आई है, झाँककर कमरे में देखा। ये....क्‍या ? अम्‍मा बिस्‍तर पर क्‍यों लेटी हैं। वे तो सदैव चुस्‍त दुरुस्त बनी रहती हैं। उसे तो याद नहीं कि वे बिना मतलब कभी लेटी भी हो। वह मां के पास आकर बैठ जाती है। ‘‘अरे मां तुम्‍हें तो बुखार है इतना ज्‍यादा।'' छोटा शानू कहता है, ‘‘दीदी मां को पिछले एक हफ्‍ते से बुखार आ रहा है, पर वो अस्‍पताल नहीं चलतीं, मैं ही दवा ले आता हूं।'' ‘‘अब दवाओं से कुछ नहीं होना बेटा, अब तो ऊपर जाकर ही ठीक होऊंगी।'' मां के कहते ही उसका दिल धड़क जाता है। मां को तो कम निराश देखा है। सारे घर का मजबूत आधार वे ही रही हैं। दवाओं के व्‍यर्थ ख़र्चे से बचना चाहती हैं, मन खट्‌टा हो गया है। मां की दृष्‍टि में उन सबके लिए कितना प्‍यार, चिन्‍ता झलकी पड़ रही है। देखा कितना सट पर बैठा हुआ है छोटा मां से। रूआँसा हो उठा है। छोटे के लिए कितना तो लाड़ उमड़ आया भावना के मन में। ‘‘दीदी मेरी दसवीं कक्षा के फार्म्स आ गए है।'' ‘‘तो रोनी सूरत क्‍यों बना रखी है, चलो हम फीस दे देंगे।'' ‘‘फीस तो भर दी है।'' छोटे ने कहा। ‘‘तब क्‍या प्राब्‍लम है।''-- ‘‘वो मुझे मैथ्‍स की ट्‌यूशन लेनी है।'' ‘‘अरे इतनी सी बात है कितने रूपये देने हैं लो रखो, दे आना, तुमने क्‍यों नहीं बताया अभी तक।'' जानती हैं कितने दिनों से तो भाई से बात तक करने की फुर्सत नहीं मिल पाई है। वह किससे कहता, कब कहता, क्‍या कहता। मां भी क्‍या करतीं, वैसे ही चिंतित हैं। आंगन से चौके में ही उसे भाभी दिख जाती हैं। वे चाहकर भी बाहर कहां निकल पाती हैं। उसे देख कर कहती हैं, ‘‘बिब्‍बो'' कहीं जा रहीं हैं, आज तो आपके पसंद का खाना बना है। गर्म खाकर ही जाइये।'' वह पलट पड़ती है, मन अशांत है। भूख न होने पर भी भाभी का मान रखने के लिए अंदर आकर बैठ जाती हैं। गोरी चिट्‌टी, सुन्‍दर, सुघड़ सी भाभी के इन्‍हीं गुणों पर रीझकर पसंद किया था उन लोगों ने। कितना गर्व हुआ करता। बड़ी उमंगों से बड़े भैया ने भी स्‍वागत किया था इनका। कितनी शिथिल लग रही हैं। इतनी कम उम्र में भी कितनी निराश है। वह अब किसे दोष दे, इतना अच्‍छा भोजन भी बेस्‍वाद लग रहा है। अपनी स्‍नेही भाभी की वीरान आंखे ही मानो उनकी मुसीबतों व परेशानियों का दर्पण बन उठीं है। दिन भर सबके लिए खटती रहकर भी, सब कुछ पूरा करके, सामंजस्‍य बैठाना ही उनका काम है। कितना कष्‍टप्रद होता होगा, उनके लिए सब कुछ ! पर उफ ! तक नहीं करतीं। सबसे बचने के लिए ‘‘वो'' भी बाहर रहना चाहती है। उसके उठने के पहले ही भाभी उसके कान में धीमे से कहती हैं।'' ‘‘बिब्‍बो, इस बार तो तुम्‍हारे भैया ने पूरी तनख्‍वाह के रूपये लाटरी में लगा दिए हैं। कुछ भी कहो, तो खाना ही छोड़ देते हैं।'' आकुल भाभी की व्‍याकुलता देखकर उसकी अन्‍तर्चेतना ही मानो बिखरती प्रतीत होती हैं। अपने से 8-10 साल बड़े भाई को वह किस तरह समझाए। बतातीं हैं वे, ‘‘उनके असहज रूखे व्‍यवहार से खिन्‍न होकर मां पिताजी ने भी कुछ कहना सुनना छोड़ दिया है।'' कुछ कहती भावना, तभी भाभी ने कहा, ‘‘कहीं से नींद की गोलियों ही ला दो बिब्‍बो। खाकर सो रहूंगी, अब तो रहा नहीं जाता।'' अश्रु बहते जाते हैं। तभी धीमे से भैया आकर बाजू में बैठ जाते हैं। शायद अभी उन्‍हें यही निदान समझ में आया है। और तो कोई बुरी लत रही ही नहीं कभी। तब ये क्‍या हो गया उन्‍हें। क्‍या ? कोई ‘‘लालसा.....धुन'' ही एकदम पैसा कमाने की बढ़ गई है। स्‍वयं ही प्रताड़ित होते हैं। उनसे कुछ नहीं कह सकती कोई अन्‍य उपाय ही सोचना बेहतर होगा। पुनः भावना चलने को तत्‍पर होती है। तभी मां के कमरे से जोर के कराहने की आवाज जाती है। भैया दौड़कर वहां पहुंच गए हैं। उनके पैताने पर बैठते ही मां कहती हैं। ‘‘मेरी बिब्‍बो भावना बेटी' का ध्‍यान रखना। जो हम न कर सके, तुम कर देना बेटा। हमारा तो कोई भरोसा नहीं है अब।'' कहकर बेटे को एकटक देखने लगती हैं। भैया का मुंह छोटा सा हो जाता है। कितनी करूणा हो आई है उसे भैया पर। वो कितने दयार्द्र से लग रहे हैं। पर उसे जाना हैं। प्रशांत को अपना निर्णय सुनाना है। रास्‍ता देख रहे होंगे वे। यदि यहां वो और रही तो कहीं अपना फैसला न बदलना पड़े उसे, पक्‍का मन बना चुकी है। निकलना ही होगा उसे यहां से ।'' उसकी भी अपनी जिंदगी है, भावनाएं हैं। क्‍या उसका भविष्‍य यों खो जाएगा। वो अपने पर्स के रूपये गिनती जाती है। मन में कौंधता है तभी। पिताजी का आपरेशन कराना है। मां की दवाइयाँ लानी है। छोटे शानू की पढ़ाई के खर्च सामने हैं और भाभी की वो अन्‍तरिम इच्‍छा। ओह ! ‘खतरनाक गोलियां।'' भैया अकेले...... क्‍या सम्‍हाल पाएंगे ये सब। कुछ समझ नहीं पा रहीं है। केवल एक मात्र उपाय है व्‍यर्थ की चिन्‍ताओं को छोड़कर प्रशांत से ‘‘विवाह'' करके सुख से रहे। तभी उसके सुकून मिल सकेगा। वरन्‌ ये उलझनें, ये संकटों का मकड़जाल तो उसे उठने ही नहीं देगा। उसे हमेशा जकड़ते ही रहेगा। वह बिंधती चली जाएगी, घुटकर ही रह जाएगी उसकी जिंदगी। उसे अब देर नहीं करना है, किसी भुलावे में नहीं रहना है। लगता है घर भर की अशांति की जिम्‍मेदार वही बन गई शायद। कब तक यूं परेशानियों व मुसीबतों में पड़ी रहे वो। उसका मार्ग खुल गया है। नया जीवन सामने है सुनहरा भविष्‍य आमंत्रण दे रहा है। नयी नयी परिकल्‍पनाएं, नवीन सुख और उसके इंद्रधनुषीय रंग सामने हैं। हां इधर वही घुटन अंधेरे हैं। कदम उसके बढ़ते हैं.......रुकते हैं। छोटे भाई का स्‍नेह लिप्‍त चेहरा, भाभी को उसका मौन आश्‍वासन, पिता का उससे रूपये न लेना, मां द्वारा बिब्‍बो की जिम्‍मेदारी भैया को सौंपना, भाई का चुपचाप खाना खाना। माना मस्‍तिष्‍क को झकझोरते रहता है। ‘एक ओर अपूर्व सुख है, दूसरी ओर गहन दुःख है।'' घर से बाहर आकर बैठ जाती है भावना। क्‍या पलायन कर रही है वह। अपनी जिम्‍मेदारियाँ छोड़ना चाहती है या ओढ़ना चाहती है सब गड्‌मड्‌ होने लगा है। निराशा के बादल छाने लगते है। रोशनी की एक भी किरण नहीं दिखती। अंधेरे की परतों में दबी नहीं रहना चाहती। अपने दुःखों से उबरने कातर प्रयत्‍न करती है, उसके आंसू झिलझिलाने को होते हैं। अब प्रशांत को क्‍या कहेगी, उचित अनुचित की कौन सी परिभाषा कहेगी। ये सब झेल पाएंगे क्‍या वे ? उसके कष्‍टों को समझ पाएंगे कभी। भावना और खोती डूबती बिखरती कि अंदर से नन्‍हीं आशु ‘‘संपूर्ण आशा'' बनकर गोद में चढ़कर बैठ जाती है। ‘‘बुआ आप यहां क्‍यों बैठी है ? चलो हम खेलेंगे। देखो हमारी ‘गुड्‌डी' की शादी करनी है। इसने अपना ‘गुड्‌डा' भी खोज निकालना है उसी की तैयारी करनी है।'' ‘‘पर जानती हैं आप ! ये गुड्‌डा हमने नहीं हमारी गुडियारानी ने ही पसंद किया है। उसी से हम इसका ब्‍याह करेंगे। समझीं'', साथ देंगी न हमारा। सभी लोग तैयार हैं, आप हां बोलो न।'' अपनी नन्‍हीं की इन प्‍यारी बातों से वह हंस पड़ती है। भीगा मन होते हुए भी एकदम खिल सा जाता है। गुड़िया सी ही उसकी ‘आशु' अपनी नन्‍हीं बांहों में जकड़ लेती है अपनी बुआ को। इन ‘नन्‍हें सुख के क्षणों' को छोड़कर वह नहीं जाएगी कहीं। नहीं जा सकेगी। जो होना होगा, जैसे होगा, जब भी होगा। तभी बारिश की कुछ बूंदें गिरती हैं। जो उसके तप्‍त मन को ही नहीं, धरती की सूखी माटी को भी शीतल कर देती हैं। भीगी मृतिका की वह ‘‘सौंधी महक'' उसे अन्‍तर्तम तक सराबोर कर झकझोर देती हैं जो श्‍ौशवावस्‍था से ही उसे सर्वप्रिय रही है। ‘‘अपनी भीगी माटी की सुगन्‍ध। उस भीनी खुशबू में वह ये सब विस्‍मृत करके ‘‘अपना सब कुछ'' आने वाले समय पर छोड़ देती है। जानती है अंधकार को चीरकर प्रकाश की किरणें आती ही हैं कभी न कभी। ‘‘रात्रि के उपंरात सबेरा तो होता ही है।'' ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- *श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल* *स्वतंत्र लेखिका – साहित्यकार* सारांश---- साहित्यिक जीवन परिचय स्वतंत्र लेखन - सामाजिक सेवा - अध्यापन ,पूर्व शिक्षिका - कोचिंग इंस्टिट्यूट . जन्म स्थान-सागर , वर्तमान जबलपुर म प्र , पति डॉ.एम.एस.पटेल , रिटायर्ड राजकीय स्वास्थ्य सेवा उ.प्र. शिक्षा-स्कूलिंग- नेपानगर , स्नातकोत्तर "एम.एस सी. जीव शास्त्र" जबलपुर लेखकीय परिचय-1संपादन मासिक पत्रिका*पारमिता*-*2आर्टक्लब* संस्थापिका,साहित्य व विशेष विधा, झाँसी. नियमित लेखन - हिंदी व अंग्रेजी में . प्रकाशन प्रादेशिक, राष्ट्रीय स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं व अंतर्जाल पत्रिकाओं में.. लगभग १५० कहानी ,लेख ,गीत ,परिचर्चा प्रकाशित- प्रकाशनाधीन. नियमित आकाशवाणी प्रसारण २५-३० झाँसी, छतरपुर - सी केबल टी. वी. ९-१०आगरा. MEMBER OF INDIAN WRITERS CLUB INDIA INTER CONTINENTAL CULTURAL ASSOCIATION प्रकाशित पुस्तकें - कहानी संग्रहों की. १.*लौट आओ तुम*-------२१ कथा संग्रह १९९८ २. *मंजिलें अभी और हैं* - १८ कथा संग्रह २००३ ३. प्रकाशनाधीन-१. ईश्वर का तो वरदान है बेटी २. १००१ हस्त शिल्प कला पुरस्कार --------लेखन - सामाजिक कार्यों अखिल भारतीय लेखन - *कहानी प्रतियोगिता* दिल्ली प्रेस पत्रिका . १.कहानी *बंद लिफ़ाफ़ों का रहस्य* पुरस्कृत २००१ में .प्रकाशन "गृह शोभा" २००२ . २.कहानी *दूध के दांत* पुरस्कृत २००३ में .प्रकाशन “सरिता” २००४ . पुरस्कृत - तत्कालीन राज्यपाल उ.प्र. महामहिम स्व. विष्णुकान्तजी शास्त्री द्वारा. ३. सरदार पटेल महिला कल्याण समिति -सामाजिक कार्यों , नामांकन रोटरी क्लब द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर.. ४. अन्य अनेकों संस्थाओं व स्थानीय प्रशासन-लेखन निबंध सामाजिक व लायंस क्लब्स पुरस्कार. ५.Police Services are Challenge for Public Expectations- awarded essay by S.S.P.Office Jhansi blog *gyaana* ------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- 3 कहानी ---**प्रतिलिपी क स हेतु प्रेषित।** कहानी लेखिका - **श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल** 4723//66 पी , विजय चौक , अधारताल ,जबलपुर ,म प्र। विशेष ---मेरी ये कहानी सादर समर्पित है मात्र 23 साल के उस दीपक साहू को जिसने 11जुलाई 2016 की रात को भोपाल की न केवल उस बस्ती बल्कि वहां रहने वाले अनेक लोगों की असमय आई प्राकृतिक विपदा (भीषण वर्षा) के प्रकोप में अपनी जान देकर उनकी रक्षा की। कहानी---- **वो उजाला “ दीपक का या किसी देवदूत ” का**। हमारे जीवन से हमें बहुत प्यार होता है। इस संसार मे आते ही हमें अपने चारों ओर सुखद वातावरण मिलता है ,बचपन में तो हर चीज हमको बहुत अच्छी लगती है। बहुधा हम अपने आसपास सदैव सुविधाएं ,सहयोग व पसंद की वस्तु पाते हैं। कोई भी परेशानी हों या कठिनाइयां ,उसका भी सीधे सामना नहीं करते। अक्सर हमारे सहयोग हेतु कोई न कोई रहता है। यही होता है परिवार ,कितना प्यारा खूबसूरत सा होता है परिवार ,हमारा समाज । पर----हाँ ,जिंदगी एक सीधी आरामदायक सपाट सड़क नही होती ,कहीं ऊंची ,कहीं नीची ,कहीं गड्ढे ,खतरनाक मोड़, संकट ग्रस्त पुलिया। कभी गहरा अंधेरा तो तीखी रोशनी। कई बार गिरना ,उठना ,संभलना। कभी सामने ऐसा चौराहा कि अचानक दिशाहीन होकर घबराना ,भटकना, असंभावित डर सामने बना रहता है। पर----हिम्मत रखकर ,साहस से ,सोच समझकर, सजगता से कदम बढ़ाते जाएं तो किसी प्रकार के भी अंधकार को दूर करके नई सुबह की खिलखिलाती रोशनी सामने प्रगट होती है। जो हमारे सुख-दुःख ,सम-विषम ,संघर्ष-उत्कर्ष से उबरकर जीवन की असली परीक्षा बनती है। इतनी सूंदर ,प्यारी व मुश्किल से प्राप्त जिंदगी में भी हमें अक्सर झटका देकर गिराने वाले मिलते रहते हैं हम जानकर ,चाहकर भी उनका कुछ नही बिगाड़ सकते। हाँ कहीं कभी अनायास सामने कुछ *व्यक्तित्व* फ़रिश्ते* बन यूं भी मिल ही जाते हैं कि हमारा टूटता विश्वास असीम आस्था में बदल जाता है। वे हाथों से छूट भी जाते हैं और हम जीवनपर्यंत उन्हें स्मरण के सिवा कुछ नही कर पाते। स्मरण हो आता है ,बच्चों के स्कूल्स अभी खुले ही हैं ,उनकी नई किताबों ,कॉपियों पर कवर चढ़ाते ,बॉक्स ,बैग्स जमाकर रखने में सहयोग करते नियमित कार्यों में देरी होती गई व चिंतातुर होकर नींद भी देर से लगी। वैसे भी नई जगह व बच्चों के पापा के बाहर रहने से मेरी जिम्मेदारी बढ़ जाती है व खटक सी भी बनी रहती। अभी हम गहरी नींद में ही थे कि लगा उस नीरव अंधेरी रात में बाहर कुछ अजीब सा शोर व गर्जन तर्जन सा हो रहा है। चुपचाप बिस्तर पर लेटकर ही सुनने की कोशिश की। धीरे धीरे समझ आया कि वास्तव में बाहर हलचल हो रही है ,सोचकर देखा सब तरफ के दरवाजे अच्छी तरह से बंद हैं ,कोई खतरा नही ,हम अपने घरौंदे में पूर्णतः सकुशल ,सुरक्षित। आने दो आवाजें ,वैसे भी घर के बाहर निकलना तो दूर ,झांकने का भी सवाल नहीं , न मध्य रात्रि में घर खोलने का प्रश्न। अभी दो मिनिट भी नही बीते कि हमारे घर के मुख्य दरवाजे पर जोर जोर से थाप की आवाजों की अनोखी गूंज मन को दिग्भ्रमित करने लगी। यही नही बाहर भी बहुत अजीब सा शोर ,पहले लगा कहीं भूकंप तो नही पर कुछ हिल तो नही रहा , तभी जोर से बिजली चमकने के बाद भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बादल गरजे। इतने शोर में बच्चे भी कुनमुनाकर जाग गए। “क्या हुआ माँ ? कैसा शोर है ? कुछ हो गया है क्या ?” लाइट जलाने की कोशिश की तो समझ आया कि बिजली नही है। अब कुछ भय सा लगा ,फिर बाहर से आवाजें , कुछ निर्णय लेने के पहले खिड़की से झांककर टोर्च से देखना चाहा। ओह ! यह क्या ? पूरी तीव्रता से बारिश हो रही थी ,उसी की सघन कर्कश आवाजें व बढ़ता कोलाहल। पुनः सामने के ही नही पीछे के दरवाजे पर भी भड़ाभड़ ,गेट पर ताला है तब भी लगातार कौन खटखटा रहा है ? “ऑन्टी दरवाजा खोलिए जल्दी ,बाहर निकलिये ,तुरंत समय नही है। फ़ास्ट-----” मेरे कुछ सोचने , कहने ,करने के पहिले बेटे ने दरवाजे खोल दिये । अरे ये क्या ? मूसलाधार बारिश का रौद्र रूप चमकती बिजली के साथ आसमान में ही नही नीचे भी चारों ओर पानी की हिलोरों का सा समुद्र दिखा। गहरी नींद से उठकर सामने ये नजारा ,हम अकबका गए। अजब सी घबराहट में नही समझ सके क्या करें ,क्या नही क्योंकि पानी तो वरांडे के अंदर समा चुका था। तभी उसी अपरिचित बच्चे की परिचित आवाज आयी। “ऑन्टी बाहर निकलो ,यहां खतरा है। पानी बहुत जोरों से गिर रहा है व अपने मुहल्ले में तेजी से बढ़ रहा है। भयंकर जलप्लावन की स्थिति है।” मुझे कुछ समझ नही आया ,बोली ,”तो क्या करेंगे ,कहाँ व कैसे जाएंगे।” “आंटीजी अभी तो कुछ न करें ,बस बाहर चलें ,यहां रहना सुरक्षित नही है ।” मैने कहना चाहा ,”मेरा घर तो ऊंचाई पर है व घर मे कोई नही ,बंद करके कहाँ जाएं।” ओह! पर ऊपर से घनघोर बारिश ,नीचे बाढ़। “ घबराइए नही आंटीजी मेरे पिताजी बाहर हैं ,वे अपने ऑटो से सबको बाहर निकाल रहे हैं ,आप बस मेरे साथ आओ।” मैं बड़ी असमंजस में--- आधी रात को गहरी नींद से जगाकर कोइ कहे ,सब छोड़कर भागो यहां से तो कितना कठिन होगा ,ये सोचना भी। पर यही अविश्वसनीय वास्तविकता थी। हम सोते रहते या दरवाजे न खोलते ,तब क्या होता , पता नहीं ,पर अभी आसन्न बड़ा खतरा है। बाहर ये अनजान ,अपनी जान की परवाह नही करते हुए देवदूत बने बच्चे ,पूरे मोहल्ले ,बस्ती के बच्चों-बड़ों की सुरक्षा को मुस्तैद। दौड़ दौड़कर शोर मचाकर जगा रहे ,सम्हाल कर बाहर निकाल रहे ।पर अभी भी----- घर छोड़कर ,बाहर जाने का निर्णय नही ले पा रही थी ,उस संकट में धीरे से कहा ,”अरे नही बेटे ! कुछ नही होगा हमें ,व ऊपर आउट हाउस में चले जायेंगे ,सेफ रहेगा ,कुछ समय की बात है ,पानी रुकने पर सब ठीक हो जाएगा।” पर वो अड़ सा गया ,”नही कोई भरोसा नही आपको तो बाहर चलना ही होगा।अभी तो आप सब बस मेरे साथ चलो , फिर मेरी जिम्मेदारी है न वापस लाने की।” उसकी आत्मीयता व स्नेहिल विश्वास ने मानो मुझे अंदर तक हिला दिया था। न मैं उसको जानती थी न वो मुझे ,बस शायद कभी आते जाते देखा हो। तभी मेरा व मेरे बच्चों के हाथ पकड़कर वो हमें हमारे घर के बाहर लाकर खुद ही दरवाजे बंदकर ,चिंतातुर ,ले चला हमें। बदहवास से हम मानो अपने सोचने समझने की शक्ति खो बैठे, तभी अलमारी ऊपर बॉक्स में रखी मेरी महत्वपूर्ण फ़ाइल का स्मरण होते ही मैंने हाथ छुड़ाकर लेने जाना चाहा पर उसने नही छोड़ा। घर के ही किसी बड़े सदस्य की तरह अधिकारस्वरूप अनुमति नही दी मानो। लगातार जल प्रवाह बढ़ता जाता ,पहले घुटने फिर ऊपर कमर तक पानी सर्वत्र । हम घनघोर संकट में आ गए हैं कोई प्रमाण की आवश्यकता नही ,शायद आसपास के नाले उफान पर आ गए हों। ओफ़ ! परेशान ,मजबूर हम उसके साथ घिसटते से चल पड़े, उसने हमें तब तक हमें नही छोड़ा जब तक ले जाकर अपने पिता के ऑटो में बिठालकर सुरक्षित नही भेज दिया। बस इस आने जाने के उपक्रम में ही आसमान से चमकती बिजली की रोशनी में हमने उसको व उसने हमें देखा। इसी वक्त ध्यान से उस कम उजाले में मैंने उसे पूरी तरह से देखा “अठारह बीस साल का लगता बिल्कुल बालसुलभ भोले से सूंदर से चेहरे वाला *दीपक* यही नाम है उसका ,साथ में उसी के जैसे और कई सहयोगी लड़कों का ग्रुप ,जो कितने महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए थे ,अभी समझ आ रहा है। ओह ! क्या ये हमारी वही युवा पीढी है जिनको बहुधा हम लापरवाह या गैर जिम्मेदार समझते हैं। न अपनी चिंता ,न कोई सुरक्षा ,बस तत्पर रहे दूसरों के लिए ,यूं लगा मानो उन्होंने इन विलक्षण पलों में ठान लिया है पूरे मोहल्ले को बचाना। सामने के हर व्यक्ति का कैसा अपूर्व जिम्मा लेकर , शायद यही उनकी उम्र के निडरता या साहसी बनने का तकाजा। केवल वही नहीं उस बच्चे का पूरा परिवार कैसे व किन संस्कारों के कारण सारे लोगों को बचाने को एकजूट हो गए । न कोई रिश्ता ,न पहचान ,पर इतनी फिकर या रिस्क तो शायद किसी के घरवाले भी ऐसी परिस्थिति में नही कर पाते। ओह ! सच ,धन्य हैं ये सब व उनके सान्निध्य में धन्यभाग हम *क्या हमारे फरिश्तों या देवदूतों का यही सूंदर रूप होता है ?* हमें सकुशल भेजकर ,सुरक्षित सही जगह पहुंचाने का जिम्मा अपने पिता को देकर वो अपने साथियों के साथ वापस दौड़ गया। ये तो बहुत बाद में समझ आ सका कि उस अनजाने प्राकृतिक प्रकोप से आधी रात को जब वह साधारण सी बस्ती अनायास यूं पानी मे डूबने लगी तो कोई अंदाज तक नही लगा सका था कि जाने अनजाने ऐसे प्यारे बच्चे फ़रिश्ते बनकर सबको पार लगाने आ जाएंगे। सारी रात वे अपने भरसक प्रयासों से अपने सेवा कार्यों में लगे रहे। उन पलों ने हम सब मोहल्ले वालों को एक कर दिया ,कहीं कोई छोटे बड़े-अमीर गरीब-जाति पांति का भेद नही रहा। तभी अच्छी तरह समझ आया कि ये झूठे भेद-भाव कर किस तरह व्यर्थ में हम अपना ही बुरा करते हैं क्योंकि वास्तव में आज प्रतीत हुआ कि यदि हम इकट्ठा रहें तो किसी भी संकट का आसानी से मुकाबला कर सकते हैं। हमारे इस आने जाने की जिद में लगातार बढ़ता वो जल स्तर मेरी कमर तक हो गया होगा ,अंदाज लगाया मैंने। हम धीरे धीरे सकुशल सुरक्षित पहुंच चुके थे। जहां बहुत सारे लोग इकठ्ठे दिखे तो अचानक मन का सारा भय उस संकट में तिरोहित हो चुका था। एक बड़ी सी ऊंची जगह पर सब ही एक दूसरे को जगह देते हुए ,मदद करते ,नम्रता से अपने बच्चों के साथ दूसरे के बच्चों को भी सम्हालते दिखे। सुखद आश्चर्य के साथ गर्व भी हो आया उन साथियों पर व उन बच्चों पर जिन्होंने हमें यहां लाकर सौहार्द का अनोखा पाठ पढ़ा दिया। हां----अभी हम तो शायद सुरक्षित हो चुके थे ,पर पानी लगातार गिरता जाता ,उसके रुकने के आसार अभी भी नही ,कमी नहीं । ओफ़ क्या बादल ही टूटकर गिर जाएंगे आज ,परिस्थितियां लगातार बिगड़ने के बाद भी हम सकून अनुभव करते हुए विकटता में भी सहज होने के प्रयत्न में। बीच शहर के अंदर भी क्या ऐसी सैलाब या बाढ़ आ सकती है। अविश्वसनीय होकर भी प्रत्यक्ष अनोखा प्राकृतिक प्रकोप ,जहां हर संसाधन पास होकर भी इस वक्त किसी काम के नही लग रहे तब भी सावधानी से कदम बढ़ाते ,कभी लगता समय थम सा गया हो । ओफ़--। तेज हवा अभी भी गुस्सा जाहिर करती नजर आती। उन दो ढाई घंटों में बस्ती के लगभग सभी बच्चें,बुजुर्ग ,महिला व अन्य लोग सही सलामत एक जगह एकत्रित। वशुबाई , आनंदी ,जहीर को सही जगह लाते उन वीर बच्चों का उत्साहित दल ,तभी किसी की गूंजती आवाज ,”कमलाबाई उनके छोटे बच्चे व वहां छूटे खान भाई को सम्हालो”। आसमान की चमकती बिजली में सबने उनको देखा कितने प्यार से सम्हालकर सबको ऊंचाई पर लाते। तभी उस अंधेरे में सबने पुनः पानी का बढ़ता रौद्र रूप देखा व देखा कि सबको बचाकर लाते उन लड़कों में से किसी का बैलेंस बिगड़ा ,दूसरों को पकड़ा उसका हाथ छूटा व एक पल में हमारे सामने ही वो विलीन हो गया । घोर अंधेरे में भी सबने देखा कि पलक झपकते ही वो नजरों से ओझल हो चला । साथ के दूसरे बच्चों की सम्मिलित जोरों की आवाज -----ने सबको झिझोंड दिया ,अरे भाई का हाथ छूट गया ,ओ ! वो गढ्ढे में फंस गया ,बह गया ,कहाँ चला गया ----”दौड़ो ! अरे----रोहित ,अमन ,साहिल ,अरशद -----दीपक भाई को पकड़ो-------खींचो पानी से निकालो।” चारों तरफ के लगातार बढ़ते उस शोर ने अनायास सबको चैतन्य कर दिया ,दूर होती घबराहट पुनः दिल दहलाने लगी। अनेक आवाजें ,बड़ी चीखों ने माहौल को तब पूर्ण गमनीन बना दिया ,जब पता चला कि सबका कर्णधार बना वो लड़का दीपक अचानक पानी की धार व उसके उफान में बह गया है व हाथ नही आया। अब समझ आया कि इतनी बड़ी मुसीबत में वह और उसके सभी देवदूत साथियों ने क्या कार्य कर डाला है। अपनी जान की परवाह न करके सारी बस्ती की रक्षा की है। ओफ़ ! हजारों की भीड़ में भी सन्नाटा छा गया ,ढूंढने खोजने के उस उपक्रम में अब तक उजाला प्रतीत होने लगा ,आकाश में रोशनी के साथ मौसम कुछ खुलने से लगा। वे बच्चे ही नही अब तक वहां उपस्थित सब आबाल ,वृद्ध ,महिला ,पुरुष बिना किसी से कुछ कहे उस फरिश्ते को खोजने में जुट गए जिसने अपने साथियों के साथ मिलकर सबकी जान बचाई थी। पर------- वो नही मिल पाया ,मिला तो कुछ दूरी पर उसका शरीर ,जीवित भी नही पर उसके जाने के बाद ही लोगों ने उसे शायद अच्छे से देखा ,उसके दर्शन कर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। *ओह ! दीपक क्या तुम केवल देवदूत बनकर हमारे संकट हरण हरने आये ,अपने व अपने दोस्तों के साथ तुमने हमें बता दिया कि पाश्चात्य होकर नई टेक्नोलॉजी में रची बसी हमारी नई पीढ़ी कितनी जागरूक है । अपने परिवार के साथ समाज को भी गर्वित करने में सक्षम है।* –----–---------------------------------–--------------------------------------------------------------------------------------------- ये मेरी स्वरचित कथा है। प्रतिलिपि क स हेतु प्रेषित। कहानी लेखिका -- श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल 4723/66 पी , जे पी नगर ,विजय चौक ,अधारताल ,जबलपुर म प्र 284002 –--------------------- दिनांक 16 जुलाई 2018 ,