Friday, October 2, 2020

(हम सबके स्नेही माताओं व पिताओं को)

उनके प्रदत्त संस्कार आचार विचार को ग्राह्य करके हम सब अपने जीवन में खो जाते हैं। जीवन की उत्कृष्टता को प्राप्त करते हैं। हाँ उनके ऋण को नहीं चुका सकते।


**सादर समर्पित** 


*मेरा आंगन*


अभी उस दिन माँ से मिली जब मैं,

डबडबाई आंखों ने किया स्वागत मेरा।

सशक्त वटवृक्ष थे स्नेही पिता मेरे,  

ये शिथिलता ने कैसा डाल दिया डेरा।

दोनों मौन हैं क्यों , उदास व्यथित भी ,

पर मुस्कुराहट को नहीं है बिसारा।

खुली किताब ही तो बना रहा है ,

बीता प्यारा मेरा बचपन,उनका सहारा।

मां पिता रहे हैं, मुझे बहुत ही प्यारे ,

इस लाडली को दिया अधिकार सारा।

याद है मेरी अच्छी बुरी गलती रही हो ,

कभी भी नहीं था  मुझे धिक्कारा।

छोटी थी तो याद नहीं ,पर पिता कहते हैं ,

माँ ने ही किया था स्वागत मेरा न्यारा।

जिगर के अपने इस टुकड़े को ,

सींचा अपने लहू से, नहीं था नकारा ।

बाबुल की गलियों में खेली-बढ़ी-पढ़ी ,

अब भी हाँ सपनों में रहतीं हूं उनके। 

माँ की डांट मार फटकार खाई ,

असीम-अबूझे प्यार को देखा उनके।

जिस जमीन पर अब खड़ी हुई हूँ ,

नया क्षितिज छूती जा रही हूं ।

जीवन में जो चाहा वो पाया है ,

नित नई कल्पनाएं सजाती जारही हूं। 

मन के कोने में आश्वस्ति भी है,

स्नेहाशीष अब भी पाते जा रही हूं।

हर खुशी गम में उनके ही साहस से,

अपने हर कदम पर मुस्कुरा रही हूं ।  

अपना मन उनके *आंगन*,रहने तक ,

नहीं उलीच पाई थी, हाँ कभी मैं।

कैसी हूँ बेटी उनकी दुहिता होकर भी ,

प्रतिकार कभी नहीं  कर पाई मैं ।

कैसे खो गए हैं वो सूंदर पल छिन ,

जहां मेरा था सारा, बस हर दिन अपना।

माँ के आंचल की वो भीनी खुशबू,

पिता के लाडों का सदा वो मेरा सपना।

बुजुर्ग होती मेरी माँ व स्नेही पिता मेरे ,

दूर हूँ तो क्या, मनमें साथ सदा सुहाना।

हाँ हो तो नहीं सकती ,कभी मैं उऋण,

पर चाहती हूँ थोड़ा सा सुख उनको देना।

सदा करूँ वरिष्ठ शिखर चरणों का सत्कार,

पाऊँ स्वर्ग का वो एक छोटा सा कोना।

  "नमन वंदन अभिनंदन-सादर प्रणाम"

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प्रेषित श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल


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